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Tantra
 


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Index Search for        'दक्षिणतो'
Sutra: उपनयनीयं तु ब्राह्मणं प्रशस्तेषु तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रेषु प्रशस्तायां दिशि शुचौ समे देशे चतुर्हस्तं चतुरस्रं स्थण्डिलमुपलिप्य, गोमयेन दर्भैः संस्तीर्य, रत्नपुष्पलाजभक्तैर्देवताः पूजयित्वा विप्रान् भिषजश्च, तत्रोल्लिख्याभ्युक्ष्य चदक्षिणतो ब्राह्मणं स्थापयित्वाऽग्निमुपसमाधाय, खदिरपलाशदेवदारुबिल्वानां समिद्भिश्चतुर्णां वा क्षीरवृक्षाणां (न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थमधूकानां) दधिमधुघृताक्ताभिर्दार्वीहौमिकेन विधिनासप्रणवाभिर्महाव्याहृतिभिः स्रुवेणाज्याहुतीर्जुहुयात, ततः प्रतिदैतमृषींश्च स्वाहाकारं कुर्या
Reference:1.1.2.4.0(पूर्व>सूत्र>शिष्योपनयनीयम्>सूत्र#4.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:शिष्योपनयनीयम्
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