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Tantra
 


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Index Search for        'एष'
Sutra: तत्र प्रायोगिके वर्तिं व्यपगतशरकाण्डां निवातातपशुष्कामङ्गारेष्ववदीप्य नेत्रमूलस्रोतसि प्रयुज्य धूममाहरेति ब्रूयात् एवं स्नेहनं वैरेचनिकं च कुर्यादिति इतरयोर्व्यपेतधूमाङ्गरो स्थिरे समाहिते शरावे प्रक्षिप्य वर्तिं मूलच्छिद्रेणान्येन शरावेण पिधाय तस्मिन् छिद्रे नेत्रमूलं संयोज्यधूममासेवेत प्रशान्ते धूमे वर्तिमवशिष्टां प्रक्षिप्य पुनरपि धूमं पाययेदादोषविशुद्धेःएष धूमपानोपायविधिः॥
Reference:1.1.40.10.0(पूर्व>सूत्र>द्रव्यरसगुणवीर्यविपाकविज्ञानीयम्>सूत्र#10.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:द्रव्यरसगुणवीर्यविपाकविज्ञानीयम्
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