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Index Search for        'एवमेकविंशतिरात्रमुपयुज्यालक्ष्मीरपक्रामति'
Sutra: हृतदोष एवागारं प्रविश्य प्रतिसंसृष्टभक्तो ब्राह्मीस्वरसमादाय सहस्रसंपाताभिहुतं कृत्वा यथा बलमुपयुञ्जीत जीर्णौषधश्चापराह्णे यवागूमलवणां पिबेत् क्षीरसात्म्यो वा पयसा भुञ्जीत एवं सप्तरात्रमुपयुज्य ब्रह्मवर्चसी मेधावी भवति द्वितीयं सप्तरात्रमुपयुज्य द्विरुच्चारितं शतमप्यवधारयति।एवमेकविंशतिरात्रमुपयुज्यालक्ष्मीरपक्रामति मूर्तिमती चैनं वाग्देव्यनुप्रविशति सर्वाश्चैनं श्रुतय उपतिष्ठन्ति श्रतुधरः पञ्चवर्षशतायुर्भवति॥
Reference:1.1.28.5.0(पूर्व>सूत्र>विपरीताविपरितव्रणविज्ञानीयम्>सूत्र#5.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:विपरीताविपरितव्रणविज्ञानीयम्
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