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Shloka: | ततो हतारिः सगणः सुखं वै प्रशाधि कृत्स्नंत्रिदिवं दिविष्ठः । त्वष्ट्रा तथोक्तः स पुरंदरस्तु वज्रं प्रहृष्टः प्रयतोऽभ्यगृह्णात् ॥ |
Reference: | 3.33.98.0.24(वनपर्व (आरण्यकपर्व)>तीर्थयात्रापर्व>अष्टनवतितमोऽध्यायः (98)>श्लोक#24) |
Parva: | वनपर्व (आरण्यकपर्व) |
Upaparva: | तीर्थयात्रापर्व |
Adhyaya: | अष्टनवतितमोऽध्यायः (98) |
Akhyana: | |
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