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Index Search for        'त्रिरात्रोपोषितश्च'
Sutra: हृतदोष एव प्रतिसंसृष्टभक्तो यथाक्रममागारं प्रविश्य मण्डूकपर्णीस्वरसमादाय सहस्रसंपाताभिहुतं कृत्वा यथाबलं पयसाऽलोड्य पिबेत्। पयोऽनुपानं वा तस्यां जीर्णायां यवान्नं पयसोपयुञ्जीत् तिलैर्वा सह भक्षयेत्त्रीन् मासान् पयोऽनुपानं जीर्णे पयः सर्पिरोदन इत्याहारः एवमुपयुञ्जानो ब्रह्मवर्चसी श्रुतनिगादी भवति। वर्षशतमायुरवाप्नोति।त्रिरात्रोपोषितश्च त्रिरात्रमेनां भक्षयेत्त्रिरात्रादूर्ध्वं पयः सर्पिरिति चोपयुञ्जीत बिल्वमानं पिण्डं वा पयसाऽलोड्य पिबेत् एवं द्वादशरात्रमुपयुज्य मेधावी वर्षशतायुर्भवति॥
Reference:1.1.28.4.0(पूर्व>सूत्र>विपरीताविपरितव्रणविज्ञानीयम्>सूत्र#4.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:विपरीताविपरितव्रणविज्ञानीयम्
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