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Index Search for        'घृष्टासु'
Sutra: अत ऊर्ध्वं सर्वस्रावान् वक्ष्यामः- तत्रघृष्टासु छिन्नासु वा त्वक्षु स्फोटे भिन्ने विदारिते वा सलिलप्रकाशो भवत्यस्रावः किंचिद्विस्रः पीतावभासश्च; मांसगतः सर्पिःप्रकाशः सान्द्रः श्वेतः पिच्छिलश्च; सिरागतः सद्यश्छिन्नासु सिरासु रक्तातिप्रवृत्तिः पक्वासु च तोयागमनं पूयस्य, आस्रावश्चात्र तनुर्विच्छिन्नः पिच्छिलोऽवलम्बी श्यावोऽवश्यायप्रतिमश्च; स्नायुगतः स्निग्धो घनः सिंघाणकप्रतिमः सरक्तश्च; अस्थिगतोऽस्थन्यभिहिते स्फुटिते भिन्ने दोषावदारिते वा दोषभक्षितत्वादस्थि निःसारं शुक्तिधौतमिवाभाति, आस्रावश्चात्
Reference:1.1.22.8.0(पूर्व>सूत्र>व्रणास्रावविज्ञानीयम्>सूत्र#8.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:व्रणास्रावविज्ञानीयम्
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