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Tantra
 


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Index Search for        'घृतमुपशुष्यति'
Sutra: तत्र त्वक्प्रनष्टे स्निग्धस्विन्नायां मृन्माषयवगोधूमगोमययमृदितायां त्वचि यत्र संरम्भो वेदना वा भवति तत्र शल्यं विजानीयात्, स्त्यानघृतमृच्चन्दनकल्कैर्वा प्रदिग्धायां शल्योष्मणाऽशु विसरतिघृतमुपशुष्यति चालेपो यत्र तत्र शल्यं विजानीयात्; मांसप्रनष्टे स्नेहस्वेदादिभिः क्रियाविशेषैरविरुद्धरातुरमुपपादयेत्, कर्शितस्य तु शिथिलीभूतमनवबद्धं क्षुभ्यमाणं यत्र संरम्भं वेदनां वा जनयति तत्र शल्यं विजानीयात्; कोष्ठास्थिसन्धिपेशीविवरेष्ववस्थितमेवमेव परीक्षेत। सिराधमनीस्रोतः स्नायुप्रनष्टे खण्डचक्रसंयुक्ते याने व
Reference:1.1.26.12.0(पूर्व>सूत्र>प्रनष्टशल्यविज्ञानीयम्>सूत्र#12.0)
Tantra:पूर्व
Sthana:सूत्र
Adhyaya:प्रनष्टशल्यविज्ञानीयम्
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